बार्बी डॉल्स
नीला प्रसाद
(1)
मैंने खुद को आईने के सामने खड़ी होकर देखा - फूले -फूले गालों, झरकर पतले हो गए बालों, पसरकर कमरा हो चुकी कमर, झुर्रियों की आहट समेटे चेहरे, थकी हुई आंखों और चर्बी की परतों से लदे पेट को। मैं अफसोस से भर उठी। मैंने खुद को एक बार फिर दाएं और बाएं घूमकर देखा; इधर -उधर, आगे -पीछे, हर कोण से देखा। नहीं, किसी भी कोण से छरहरेपन की कोई आशा शेष नहीं बची थी। मैं, जिसे छुटपन में दुलार से सब प्यारी गुड़िया कहा करते थे, अब किसी कोण से प्यारी या गुड़िया नहीं लगती थी। शादी के बाद सागर भी लाड़ में कह देता था कि मैं तो उसकी एडल्ट बार्बी हूं - सधे शरीर, आकर्षक चेहरे वाली बार्बी। मेरे दिल में दर्द का समंदर पछाड़ें खाने लगा। मैं अपनी उम्र से ज्यादा की दिखने लगी हूं, तभी इन दिनों सागर को मुझे देख कर परेशानी होने लगी है। कहता रहता है वह कि मुझे खुद पर ध्यान देना चाहिए। सागर भले जताए कि वह मेरे शानदार फिगर या आकर्षक शक्ल पर नहीं, मेरी तीक्ष्ण बुद्धि पर मर मिटा था; शानदार फिगर मेनटेन करने या सजी -धजी आकर्षक लगती रहने को उकसाने का सिलसिला उसकी ओर से कभी खत्म नहीं हुआ। अब तो शादी के तीन दशक होने को आए और मैं अच्छी तरह जानती हूं कि खूबसूरत चेहरा और छरहरा शरीर उसकी कितनी बड़ी कमजोरी है।
दरअसल पति को खुश रखने और उसकी पसंद से ही सजने के संस्कार मेरे भीतर इतने गहरे समाए हैं कि चेहरे पर कोई दाग - धब्बा, खुरदुरापन या खराब फिगर, मुझे तत्काल पार्लर के फेरे लगाने, खान - पान में सावधानियां बरतने या स्किन स्पेशलिस्ट के चक्कर काटने को उकसाने लगता है! इन समस्याओं का कोई हल न निकले तो मैं हताशा के काले अंधेरे में डूबने लगती हूं...आखिर उस पति की प्यारी बनी रहने का मामला ठहरा, जिसे खूबसूरत लड़कियां बड़ी आसानी से लुभा लेती हैं। कभी -कभी कसक तो होती है कि काश, सागर खूबसूरती का इस कदर दीवाना नहीं होता! तब मैं चेहरे और फिगर को लेकर इतने तनाव में जीने की बजाए, व्यक्तित्व के दूसरे हिस्से संवारने पर भी ध्यान दे पाती। कभी तो मन होता है कि लड़ूं उससे कि मेरे व्यक्तित्व के दूसरे शानदार हिस्सों को क्यों वह प्राथमिकता पर नहीं रख पाता? मेरे अंदर क्यों नहीं देख पाता? पर आईने ने अभी जो दिखाया, उससे तो सचमुच घबरा उठी हूं मैं कि आखिर इतनी जल्दी बूढ़ी कैसे हो गई? पर क्या इसे जल्दी कहा जा सकता है, जब मैं मध्य वय की ड्योढ़ी छू रही, पोस्ट मेनॉपॉज महिलाओं की खतरनाक जमात में शामिल, बेटा - बेटी ब्याहने की उम्र वाली महिला हूं, जिसने रिटायरमेंट के साल गिनने शुरू कर दिए हैं? चाहती तो रही कि ऑफिस में उन महिलाओं की जमात का हिस्सा बनूं, जिन्हें उनके रिटायरमेंट के दिन तक कभी चालीस से ज्यादा की मानने का दिल नहीं हुआ। पर अब मैं कर क्या सकती हूं आखिर? क्या आजमा सकती हूं? बोटोक्स, जिम, डाइटिंग या सबकुछ? शायद साठ की उम्र में चालीस की दिखने वाली मेरे ऑफिस की महिलाओं का जीवन मेरी तरह पेचीदा नहीं रहा होगा। अगर रहा भी होगा तो दुख में डूब जाने की बजाए वे खुश रहना सीख चुकी होंगी। दस चिंताओं से लदी, फिगर और खूबसूरती को लेकर अवास्तविक, असीम चाहनाओं से घिरी जीती, किसी ऐसे पति के साथ नहीं रह रही होंगी, जो अपनी करनियों और सोच से पत्नी को हर वक्त सूली पर लटकाए रखे। शायद वे निश्चिंत जीती उस भाग्यशाली समूह का हिस्सा हैं, जिनके पति को पत्नी के बुढ़ापे से कोई समस्या नहीं होती। वे शान से बूढ़ी हो सकती हैं पर निश्चिंतता उन्हें बूढ़ी होने देती नहीं है।
आश्चर्य कि किसी ऐसे पुरुष के जाल में मुझ जैसी कोई आ फंसी, जिसके घर फैशन वगैरह का कोई चलन ही नहीं रहा कभी। फैशनेबल कपड़े पहनना और ब्यूटी पार्लर जाना तो मैंने अपने घर की अति पारंपरिक सोच के विरोध में शुरू किया था। फिर मुझ विद्रोही के फैशनेबल और स्मार्ट लुक ने मुझे एक सौन्दर्यपिपासु, खूबसूरत पुरुष की नजरों में ला, उसकी पत्नी बना दिया.. और अब मैं अपनी स्मार्टनेस, अपना सौन्दर्य बरकरार रख सकने की कोशिश में हलकान हुई जीती हूं।
शायद यह पिछले पूरे महीने बार-बार कॉन्फरेंसों, मीटिंगों में खाना खाने और घर पर मेहमानों के स्वागत में बनाए जाने वाले विशेष व्यंजनों का असर है। साथ ही मीठा खाने की न छूटने वाली मेरी आदत.. ऐसा क्यों करती हूं मैं, जब जानती हूं कि मेरे मोटापे से सागर कितना परेशान हो जाता है! दिन -भर तन्वंगी, छरहरी -सुडौल, सजी -धजी, निमंत्रण देती युवा लड़कियों से घिरा वह जब शाम को मेकअप विहीन, मुसड़े कपड़े लादे, थकी -हारी, बुझी बीवी से टकरा जाता है तो परेशान हो जाता है! उसकी यह चाहना कि टी.वी सीरियलों, विज्ञापनों वाली महिलाओं की तरह मैं भी उसके घर लौटने पर सजी -धजी, इंतजार में मुस्कराती मिलूं– कभी पूरी नहीं होती। मैं तो सुबह उसके ऑफिस के लिए निकलने के बाद आपाधापी में तैयार होकर काम पर निकलती हूं और शाम को उसके घर आने से पहले ही नाश्ता तैयार कर लेने की ख्वाहिश में, ऑफिस से आते ही घर की कोई भी ड्रेस पहन, सीधा रसोई का रुख करती हूं। वैसे तो यह सही है कि वह मुझे कभी सजी -धजी या अच्छे कपड़ों में नहीं देख पाता, पर इससे उसे इतना फर्क क्यों पड़ना चाहिए आखिर! मेरे अंदर की वह लड़की, जिसे घर पर बस दिमाग बनी जीते रहने की शिक्षा मिली, अकसर विद्रोही हो उठती है। पति की नजरों में चमकता सुंदर चेहरा या छरहरी काया ही हमेशा प्राथमिकता पर क्यों रहनी चाहिए; पत्नी की सिंसियरिटी, केयरिंग नेचर, रिश्तों में ईमानदारी, मेधा, दुनिया में कुछ कर दिखाने की चाहना क्यों नहीं? खैर, वजन घट जाना तो अच्छी बात है। यह कोशिश मेरे ही हित में है– इससे मैं दस्तक देते रोगों से छुटकारा पा लूंगी, तो खुद को आईने में देख कर खुश भी हो सकूंगी–मैंने खुद को याद दिलाया... और चमकता चेहरा? भई, वह भी हो जाए तो बुरा क्या है!
पर सुबह की वॉक पर जाना शुरू करने, एक्सरसाइज करने का समय निकालने या खाना संयमित करने की योजना बनाने से पहले अभी तो पार्लर जाना था। अपॉइंटमेंट साढ़े बारह बजे का था और बारह बज चुके थे। शनिवार था, इसीलिए मंगल -शनि बाल कटाने से बचने वाली पारंपरिक महिलाओं की भीड़ वहां नहीं मिलनी थी। मिल सकती थीं तो मुझ जैसी आजाद खयाल महिलाएं, जिन्हें ऐसी परंपराओं से बगावत करने में आनंद आता हो या फिर किशोरियां, जिन्हें बड़ों की बात न मानना ही भाता हो। मजबूरी की मारी कुछ महिलाएं भी बाल कटाने से बच कर फेशल वगैरह के लिए आई मिल सकती हैं, क्योंकि रविवार को यह पार्लर बंद रहता है। इस पार्लर में तो वैसे भी वे मध्यवर्गीय लड़कियां या महिलाएं ही आती हैं, जो या तो ज्यादा पैसे खर्चने की स्थिति में नहीं होतीं या जिन्हें पार्लर पर ज्यादा पैसे खर्चना गवारा नहीं होता.. और फिर पार्लर भी कैसा? एक बेडरूम के एल.आई.जी. फ्लैट की पिछली बालकनी में एक हाउस वाइफ द्वारा चलाया जा रहा पार्लर, जहां बाहर कोई बोर्ड तक नहीं लगा। अंदर - अंदर सबों को पता कि यहां कोई कमर्शल ऐक्टिविटी चलती है पर पुलिस के आने की खबर लगते ही सारा साजो-सामान गायब और सारे पड़ोसी मुकर जाने को तैयार कि यहां कोई पार्लर चलता है। तो एक झूठ, या कहें कि मिलीभगत के तहत चलता है यह सब, जहां हम जैसे उसके कस्टमर कम पैसों में काम चला लेते हैं और वह पुलिस को घूस देने या सरकार को टैक्स देने से बच जाती है।
दरअसल खूबसूरती और बदसूरती के बीच की दीवार को पाटती ऐसी जादुई जगहें मुझे बचपन से लुभाती रही हैं। यह खयाल अपने आप में कितना आकर्षक है कि कोई असुन्दर -सी दिखती लड़की यहां घुसकर सुन्दर -सी दिखती बाहर आ सकती है! रूप - रंग को लेकर हीनता से घिरी कोई, आत्मविश्वास से भरपूर बनी कोई यहां से निकलती दिखती है तो मुझे इन जैसी जगहों की सार्थकता पर गर्व होने लगता है– मानो यह सब खुद मेरा इज़ाद किया हुआ हो। पर बहुत पहले से धीरे -धीरे समझ में आने लगा कि यह आत्मविश्वास नकली है। असली है अपने पैरों खड़े होने, रंग -रूप से परे, अपनी बुद्धि के बूते कुछ कर दिखा सकने का आत्मविश्वास! यह जादुई दुनिया चेहरे को तो खूबसूरत बना सकती है, उस पर असली आत्मविश्वास की परतें नहीं चढ़ा सकती।
मैं याद करती तो हैरान हो जाती कि खुद मुझे इस जादुई दुनिया में घुस पाने की शुरुआत करने में कितनी जद्दोजहद करनी पड़ी थी। हमारा घर उन घरों में से था जहां इंटेलिजेंट होना काफी था, चाहे आप अनाकर्षक से ही क्यों न दिखते हों! पढ़ाई में अच्छा होना आपकी पहली प्राथमिकता होनी तय थी; चेहरा -मोहरा, कपड़े वगैरह दूसरी! वातावरण ऐसा कि पढ़ाई में श्रेष्ठता के बदले सुंदर दिखने की चाहना गलत ही नहीं, गुनाह मानी जाए। अपने इंटेलिजेन्स, अच्छे चरित्र और अच्छी नौकरी के बूते, साधारण रंग - रूप की होते हुए भी, हमें बिना दहेज अच्छा वर मिल जाएगा– ऐसा पिता का मानना था। खुद की साज - सज्जा की बजाए, घर की साज - सज्जा करने, खुद से ज्यादा दूसरों की परवाह करने वाली उनकी कमाऊ बेटियां होनहार लड़कों को आकर्षित करेंगी– उन्हें तय -सा लगता था। पर जल्दी ही उन्हें समाज ने समझा दिया कि उनकी यह सोच नितांत अव्यावहारिक थी। पर यह कहानी तो बाद की है। उससे पहले मैंने एक आदर्शवादी वातावरण में छोटे शहर में रहते, भाई - बहनों - माता - पिता की सोच को धता बताते, एक तरह से उनसे बगावत करते, उस पनाहगार में घुसना चुना, जो मेरे जाने एक जादू था। बड़ी बहन पर मेरी इस गुहार का कोई असर नहीं होने पर कि वह मेरे बाल कंधे तक छोटे कर दे ताकि मैं चोटी बनाने और असुंदर दिखने से बच जाऊं, मैंने ठान लिया कि शहर में पार्लर खुलते ही चुपके से वहां चली जाऊंगी। बहन को आशंका थी कि मेरा ध्यान पढ़ाई पर कम था, इसीलिए कटे बाल झुलाती, आईने में खुद को निहारती रही तो मेरी पढ़ाई पूरी तरह बर्बाद हो जाएगी। उस घर में जहां फिल्मी गाने गाना, जब - तब फिल्में देखने और लड़कों से दोस्ती की चाहत, बिगड़ जाने का इशारा समझी जाती थी, मैंने कई गुनाह एक साथ कर डाले। आईने में देखकर अपनी घनी, आपस में जुड़ी भौंहों को कैंची से अलगा, खुद ही धनुषाकार कर डाला और शहर में पहला पार्लर खुलते ही, जेब खर्च के पैसों से बाल छोटे ही नहीं, लहरियादार भी करा डाले। जाहिर है कि मैं सुंदर नहीं, तो आकर्षक तो दिखने ही लगी हूंगी तभी लोगों का ध्यान मेरी ओर खिंचने लगा। फिर तो क्लास में बिना पहले पांच में आए या जी -तोड़ मेहनत वाली पढ़ाई किए, किस्मत से अच्छी नौकरी मिल गई, चुपके -चुपके प्यार भी हुआ– भले प्रेमी से विवाह न हो पाया और बाद में अपनी पसंद और पिता की रजामंदी से शादी। शादी के बाद अकसर लगता रहा कि झोंक में शादी भले कर ली, महानगर में पले - बढ़े पति को छोटे शहर की पत्नी लाने का अफसोस बराबर बना रहा। तभी वह पत्नी को स्मार्टनेस बरकरार रखने और चेहरे - मोहरे, रखरखाव पर पूरा ध्यान देते रहने को लगातार उकसाता रहा। वैसे भी छोटे शहर और महानगर के फैशन सेंस में बहुत अंतर था। साज -सज्जा पर कम से कम पैसे खर्च करने के संस्कार मेरे चरित्र में इतने गहरे घुसे थे कि पति की नजरें मेरी कस्बाई सोच और आउटडेटेड फैशन सेंस पर जब - तब अफसोस जताती रहीं। मैंने कोशिशें लगातार जारी रखी और शादी के लगभग तीन दशकों बाद भी पति की नजरों में अच्छा दिखने की चाहत खत्म बनी हुई - भले पति और मेरे विचारों, जीने के तरीकों और फैशन सेंस में अंतर, मेरे महानगर में बस जाने के बावजूद खत्म नहीं हो पाया। अब मैं एक बाल - बच्चेदार, अधेड़, लगभग मोटी महिला में तबदील हो चुकी हूं, पर ब्यूटी पार्लर के चक्कर तब भी लगते रहते हैं। चेहरा और फिगर सुधारने की ख्वाहिश से ज्यादा रिलैक्सेशन के लिए। पार्लर विज़िट इस उम्र में कॉस्मेटिक कम, थेराप्यूटिक जरूरत ज्यादा बन गया है। थेराप्यूटिक ही सही, महीने - दो महीने में है तो जरूरी! किशोरावस्था में कंधे तक कटवाए गए बाल, अब थोड़े और छोटे होकर, बस कानों को ढकते हैं। खुद को आईने में देखती हूं तो भरोसा नहीं होता कि वह मैं ही थी कभी−कमर से नीचे तक बालों की चोटी लटकाए, आपस में जुड़ी भौंहों वाली खुद को आईने में देख परेशान होती किशोरी!
पार्लर मैं टाइम पर पहुंच गई। इस पार्लर में मॉल वाले रेट्स की तुलना में पैसे तो कम लगते ही हैं, किसी फॉर्मल वातावरण का अहसास भी नहीं होता। लगता है जैसे कोई घरेलू मंडली जमी है। गपशप के लिए महिलाएं इकट्ठा हैं और गप्पों के बीच बाल काटे जा रहे हैं, फेशल हो रहा है, आइब्रो बनाई जा रही है.. मैनिक्योर, पैडिक्योर,ब्लीच...कामवाली के आते ही सबों के लिए फटाफट चाय का इंतजाम भी हो जाता है और महिलाओं की भीड़, चाय की चुस्कियां लेती, गप्पें मारती, मजे से अपनी बारी आने का इंतजार करती रहती हैं। तभी तो इस माहौल में धीरे - धीरे काफी लड़कियां -महिलाएं एक -दूसरे को जानने लगी हैं।
आज भी वहां पहचान वाले कई चेहरे मिल गए।
क्रमश...